what is public expenditure सार्वजनिक व्यय क्या है?

what is public expenditure सार्वजनिक व्यय क्या है? 

 

what is public expenditure

सार्वजनिक व्यय क्या है? इसके विभित्र सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। (What is public expenditure? Describes the various principles of public expenditure)

अथवा

सार्वजनिक व्यय के विभिन्न सिद्धान्तों को समझाइए ।

[सार्वजनिक व्यय के विभिन्न सिद्धांतों का वर्णन करें।)

उत्तर-

सार्वजनिक व्यय का आशय
(सार्वजनिक व्यय का अर्थ)

सार्वजनिक व्यय लोक वित्त का महत्वपूर्ण भाग है। "what is public expenditure"  वर्तमान काल में सरकार की आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक क्रियाओं के कारण सार्वजनिक व्यय का महत्वपूर्ण स्थान है। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सार्वजनिक व्यय को अधिक महत्व मिला परन्तु कार्ल मार्क्स एवं कीन्स के विचारों ने सार्वजनिक व्यय के महत्व को और अधिक बढ़ा दिया है। आज दुनिया के सभी देशों में सार्वजनिक व्यय का महत्व अधिक हो गया है। भारत में भी स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् 50 गुना सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हुई है।

सार्वजनिक व्यय का आशय उन व्ययों से है जो सरकारी अधिकारियों द्वारा किये जाते हैं। सार्वजनिक व्यय मुख्य रूप से आर्थिक विकास, सुरक्षा एवं सामाजिक कल्याण आदि कार्यों में किये जाते हैं, यह व्यय योजनाबद्ध तरीके से पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किये जाते हैं। सार्वजनिक व्यय की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

(1) सार्वजनिक व्यय सरकार एवं सरकारी संस्थाओं द्वारा किया जाता है।

(2) सार्वजनिक व्यय योजनापूर्वक या बजट बनाकर किया जाता है।

(3) सार्वजनिक व्यय के पूर्व निर्धारित लक्ष्य या उद्देश्य होते हैं।

(4) सार्वजनिक व्यय जनकल्याण की भावना से किया जाता है।

(5) सार्वजनिक व्यय उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है।

 

"what is public expenditure"  इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सार्वजनिक व्यय राष्ट्रीय कल्याण की प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन है क्योंकि इससे राष्ट्र के उत्पादन को बढ़ाने तथा वितरण में आर्थिक विषमताएँ कम करने में सहायता मिलती है जो कि समाज की प्रगति को सूचित करती है।

 

सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्त
सार्वजनिक व्यय के सिद्धांत) 

"what is public expenditure"  सार्वजनिक व्यय को ठीक ढंग से करने के लिए कुछ नियमों तथा सिद्धान्तों का पालन करना आवश्यक है। इन सिद्धान्तों को दो भागों में बाँटा गया है-

1. प्रो. फाइंडले शिराज द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत प्रो. फिण्डले शिराज द्वारा सार्वजनिक व्यय के निम्नलिखित सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है- (1) लाभ का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि समाज को प्राप्त होने वाला लाभ कर के रूप में होने वाली हानि के बराबर नहीं जाए। सार्वजनिक व्यय से पूरे समाज को लाभ होना चाहिए, जिससे कि अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख की प्राप्ति हो सके। इसीलिए कहा गया है कि सार्वजनिक व्यय प्रत्येक दिशा में इस प्रकार होना चाहिए कि किसी भी एक दिशा में थोड़ी-सी वृद्धि होने से समाज को प्राप्त होने वाला लाभ उस हानि के बराबर हो जाय जो कर की मात्रा में वृद्धि के कारण होती है और अन्य किसी स्रोत से राजकीय आय भी होती है। यही सार्वजनिक व्यय और सार्वजनिक आय का आदर्श होता है। परन्तु इन सबके बाद भी इसके पालन में विभिन्न कठिनाइयों आती हैं अर्थात् व्यक्ति के लाभ की गणना, व्यय की सीमा ज्ञात करना, कुछ व्यय जो कि समाज के लिए अहितकर होते हैं उनको ज्ञात करने में कठिनाई और किस मद पर कितना व्यय किया जाए इन सभी बातों की गणना करने में कठिनाई आती है।

(2) मितव्ययिता का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय मितव्ययितापूर्ण होना चाहिए। मितव्ययिता का अर्थ कंजूसी अथवा सार्वजनिक व्यय में कमी करना नहीं है बल्कि व्यय करते समय सावधानी, विवेक एवं दूरदर्शिता का ध्यान रखना है। सामान्यतः सरकारी धन किसी का धन नहीं है, समझकर लापरवाही से व्यय कर दिया जाता है जो अनुवित है। अधिकारियों की लापरवाही, दूरदर्शिता का अभाव व कमजोर प्रशासन के कारण इस सिद्धान्त की अवहेलना की जाती है। सार्वजनिक व्यय करते समय सरकार को निम्नलिखित बातों पर ध्यान रखना चाहिए-

(1) सार्वजनिक व्यय से उत्पादन क्षमात में वृद्धि होनी चाहिए।

(2) व्यय के अन्तिम परिणाम अच्छे होने चाहिए।

(3) किसी भी मद पर अनावश्यक व्यय न हो।

(4) धन का कभी भी अपव्यय न हो।

(5) व्यय में दोहराव नहीं होना चाहिए।

(6) इस बात की उचित देखभाल होनी चाहिए कि व्यय का सदुपयोग हो रहा है अथवा नहीं।

(7) अपव्यय को रोकने के लिए सरकारी नियन्त्रण होना चाहिए।

इस सिद्धान्त के पालन करने से अनेक लाभ होंगे, जैसे-मितव्ययितापूर्ण व्यय से सरकार के प्रति जन विश्वास बढ़ेगा, कर भार में कमी होगी, देश की उत्पादन क्षमता में वृद्धि होगी। इस प्रकार यह सिद्धान्त आधुनिक युग में और अधिक महत्वपूर्ण है।

(3) आधिक्य का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त के अनुसार लोक व्यय की मात्रा किसी भी देश में आय से अधिक नहीं होनी चाहिए। सरकार को इस बात का प्रयास करना चाहिए कि सार्वजनिक व्यय आय को देखते हुए अधिक न होने पाए। इस सिद्धान्त का यह अर्थ नहीं है कि सरकार का व्यय आय से कम हो। आधुनिक युग में इस सिद्धान्त का पालन बहुत कठिन है। वर्तमान में बचत के बजट की जगह घाटे के बजट का प्रचलन है। विकासशील देशों में विकास के लिए तथा कुछ देशों में युद्ध एवं मंदी के कारण घाटे के बजट बनाए जाते हैं। आधिक्य के बजट का अर्थ यह है कि सरकार के पास विकास की योजनाएँ नहीं हैं। लेकिन व्यावहारिक रूप से कठिन होते हुए भी सिद्धान्ततः यह बात ठीक ही है कि बजट आधिक्य का नहीं है तो भी सन्तुलित तो होना ही चाहिए नहीं तो घाटे की कोई सीमा नहीं रहेगी तथा मुद्रा स्फीति को प्रोत्साहन मिलेगा।

(4) स्वीकृति का सिद्धान्त इस सिद्धान्त के अन्तर्गत सार्वजनिक आय का कोई भी भाग उचित अधिकारी की स्वीकृति के बिना खर्च नहीं किया जाना चाहिए। इस सिद्धान्त का यह उद्देश्य है कि जो राशि खर्च की जा रही है उसकी आवश्यकता की उचित अधिकारियों द्वारा जाँच की गई है अथवा नहीं। इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में निम्न बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए-

(1) कोई भी व्यय करने से पहले उचित अधिकारियों द्वारा स्वीकृति ले लेनी चाहिए। (2) प्रत्येक अधिकारी के लिए व्यय की सीमा निर्धारित कर देनी चाहिए।

(3) स्वीकृति राशि से अधिक व्यय करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।

(4) जिस कार्य के लिए स्वीकृति मिली हो उसी पर व्यय किया जाना चाहिए।

(5) हिसाब-किताब का उचित अंकेक्षण होना चाहिए।

(6) स्वीकृति में अनावश्यक विलम्ब नहीं होना चाहिए।

इस प्रकार स्वीकृति के सिद्धान्त का आशय व्यय को न करना नहीं है बल्कि आवश्यक कार्यों पर व्यय करना है।

II . सार्वजनिक व्यय के अन्य सिद्धान्त (Other Principales of APublie Expenditure)

प्रो शिराज के सिद्धान्तों के अलावा सार्वजनिक व्यय के कुछ अन्य सिद्धान्त भी हैं जो अग्र प्रकार 

(1) लोच का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय का ढाँचा पर्याप्त लोचशील होना चाहिए जिससे कि उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सके। सामान्यतः सार्वजनिक व्यय में वृद्धि तो आसानी से हो जाती है लेकिन उसमें कमी करना बहुत कठिन है। इसी तरह करों में कमी तो की जा सकती है लेकिन वृद्धि करने से जनविरोध की सम्भावना बढ़ जाती है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हमारी आय एवं व्यय का ढाँचा लोवशील हो अर्थात् जिसमें आवश्यकतानुसार कमी या वृद्धि की जा सके।

(2) उत्पादकता का सिद्धान्त इस सिद्धान्त के अन्तर्गत सार्वजनिक व्यय के द्वारा प्रत्यक्ष या आप्रत्यक्ष रूप से देश के उत्पादन में वृद्धि हो। उत्पादन क्षमता में वृद्धि से आर्थिक विकास की गति बढ़ती है जिससे लोगों को रोजगार मिलता है, आय बढ़ती है तथा जीवन स्तर में सुधार होता है। यदि सार्वजनिक व्यय से उत्पादन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वृद्धि होती है तो उसे देश के विकास के लिए उपयोगी माना जाता है, इसके विपरीत यदि उत्पादन क्षमता में कमी होती है तो उसे अनुचित व्यय माना जाएगा।

(3) समान वितरण का सिद्धान्त इस सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय का बैंटवारा इस ढंग से किया जाना चाहिए जिससे कि सम्पत्ति व आय का बैंटवारा समान हो, आर्थिक विषमताओं में कमी हो तथा निर्धन लोगों का अधिक कल्याण हो। जिन सार्वजनिक व्ययों से केवल धनी वर्ग को ही लाभ होता हो, उन्हें उचित नहीं कहा जा सकता है। सार्वजनिक व्यय करते समय निर्धन वर्ग एवं पिछड़े क्षेत्रों को ही प्राथमिकता देनी चाहिए जिससे समानता एवं सन्तुलित विकास को प्राप्त किया जा सके।

(4) समन्वय का सिद्धान्त इस सिद्धान्त के अनुसार केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय सरकारों को विभिन्न मदों में इस ढंग से व्यय किया जाना चाहिए कि व्ययों की पुनरावृत्ति न हो, व्ययों में सामंजस्य हो तथा समाज का अधिकतम कल्याण हो। इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक व्यय से समन्वय स्थापित करना है जिससे कि पुनरावृत्ति न हो तथा अपव्यय को रोका जा सके।

(5) अन्य सिद्धान्त-कुछ अन्य विद्वानों ने निश्चितता एवं विभिन्नता को भी सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्तों के रूप में मान्यता दी है। निश्चितता के सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय की मात्रा निश्चित होनी चाहिए। इसी प्रकार विभिन्नता के सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय में विभिन्नता होनी चाहिए।

ओर इसे भी पढ़ेः-

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ